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lirik lagu akhil redhu - meri tarha

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[akhil redhu “meri tarha” के बोल]

[verse 1]
हर रोज़ सुबह उठता हूँ, मगर क्यूँ नींद न आती रातों में?
खाली है दीवारें कमरे की, और जंग लगी दरवाज़ों में, हाँ
मैं हूँ, जो क़ैद है मुझमें
मैं हूँ निराश जो खुद से सबको दिखाता राहे
और गुमशुदा हूँ अपने राहों में
क्या मोड़ है जिसपे ठहरा हूँ?
मैं कब से खुद को कह रहा हूँ कि “कल से बदल दूंगा खुद को”
पर रोज़ मैं खुद को सह रहा हूँ
मैं हारा हूँ, जो टूट गया, गर्दिश में मैं वो तारा हूँ
हाँ, कल से बदल दूंगा खुद को, पर रोज़ मैं खुद को सह रहा हूँ

[chorus]
मेरी तरह क्या तुम भी खुद को ही तराशते? (तराशते)
वो गुज़रे वक्त की क्या गलतियाँ सुधारते? (सुधारते)
हाँ, महफ़िलों में अपने खुशियाँ सारी बांट के (बांट के)
क्या तुम भी रातें सारी तन्हा ही गुज़ारते? (गुज़ारते)

[verse 2]
हाँ, चीख रहा हूँ आँखों से, नर्मी है मेरी इन बातों में
सपने हैं मेरे, और खुद ही गला मैं घोंट रहा हूँ हाथों से
अब और नहीं सहना, ये राज कहूँ मैं गैरों से
“मैं खुश हूँ ज़िंदगी से”, ये झूठ कहूँ घरवालों से
कैसा डर मेरे अंदर? थर~थर कांप रही मेरी नस~नस
बंजर ख्वाब लगे अब हर दम, अब बस ताने कैसे सब हंस~हंस
हाँ, मैंने जो किए वादे हैं, अब तक वो सभी आधे हैं
नज़रें ही झुका लेता हूँ, अपने जो नज़र आते हैं
मेहलों के संगमरमर पे, मैंने कंगन टूटते देखे है
और छोटी चार~दीवारों में माँ~बाप वो हसते देखे हैं
तो क्या है कामयाबी? क्या है ज़िंदगानी?
राहें चुनूँ मैं कैसे? सवाल मुझपे भारी
[bridge]
मैं आसमान में राहतें क्यों ढूंढता हूँ बेवजह?
है रंजिशें मेरी दुआ, है बेख़बर मेरा ख़ुदा
जितनी भी शिकायत है, ये ख़ुद नादिर की कमी है (कमी है)
जैसी भी आस है, बस मेहनत की ही रंग ढली है (ढली है )
चादर जो ओढ़ के सोया, जग से कहाँ वाकिफ़ है? (वाकिफ़ है)
ठहरा हूँ आज मैं ही, मुझे कल की भी कुछ तो ख़लिश है (ख़लिश है)

[verse 3]
हाँ, माना दर्द है, अभी मैं कुछ बना नहीं
शायद मैं सपनों के लिए कभी लड़ा नहीं
गिर जाएगा वो ख्वाहिशों का घर, मुझ पे ही
अगर मैं आज अपने बिस्तर से उठा नहीं
कोशिश करूंगा बस, कल से बेहतर बन सकूं
अगर फिसल गया, तो खुद ही मैं संभल सकूं
गवाऊं वक़्त ना वो बीते बातें सोच कर
कभी रुकूं ना, चाहे धीमे ही कदम चलूं

[chorus]
मेरी तरह क्या तुम भी खुद को ही तराशते? (तराशते)
वो गुज़रे वक्त की क्या गलतियाँ सुधारते? (सुधारते)
हाँ, महफ़िलों में अपने खुशियाँ सारी बांट के (बांट के)
क्या तुम भी रातें सारी तन्हा ही गुज़ारते? (गुज़ारते)


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